भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियाँ तात्त्विक विवेचन हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियाँ तात्त्विक विवेचनजयन्ती प्रसाद नौटियाल
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यह पुस्तक संपूर्ण भारत में विश्वविद्यालयों, बोर्डों, महाविद्यालयों आदि के प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही शोधार्थियों, कथा-साहित्य के गंभीर अध्येताओं, समालोचकों, समीक्षकों के लिए भी उपादेय सिद्ध होंगी।
प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश
इस पुस्तक में हिन्दी की पहली कहानी (मैं ‘राजा भोज का
सपना’
को पहली कहानी मानने का पक्षधर हूँ) से लेकर 2006 में प्रकाशित कहानी
‘रौबी’ तक को लिया गया है। कुल बीस कहानियों पर चर्चा
की गई
है। इन बीस कहानियों का चयन इनकी विशिष्टताओं के आधार पर किया गया है।
किसी कहानीकार के बड़े होने या छोटे होने या लोकप्रिय होने या न होने अथवा
वरिष्ठ या कनिष्ठ जैसा कोई मानदंड नहीं अपनाया गया है। पहला मानदंड रहा
है—हिन्दी की पहली कहानी से लेकर नवीनतम सन् 2006 तक के कालखंड
में
कहानी विधा में जो मोड़ और मरोड़ आए हैं उनका प्रतिनिधित्व करने वाली कम
से कम एक कहानी अवश्य विवेचित हो तथा दूसरा मानदंड यह अपनाया गया है कि
अधिकांश विश्वविद्यालयों व बोर्डों ने किसी न किसी स्तर पर इन कहानियों को
पाठ्यक्रम में शामिल किया हो।
इस पुस्तक में कथा तत्त्वों का विश्लेषण, शब्दार्थ एवं टिप्पणी खंड तथा व्याख्या खंड आदि का अनुशीलन उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम के बोर्डों, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर किया गया है। संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि यह पुस्तक संपूर्ण भारत में विश्वविद्यालयों, बोर्डों, महाविद्यालयों आदि के प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही शोधार्थियों, कथा-साहित्य के गंभीर अध्येताओं, समालोचकों, समीक्षकों के लिए भी उपादेय सिद्ध होगी।
इस पुस्तक में कथा तत्त्वों का विश्लेषण, शब्दार्थ एवं टिप्पणी खंड तथा व्याख्या खंड आदि का अनुशीलन उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम के बोर्डों, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर किया गया है। संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि यह पुस्तक संपूर्ण भारत में विश्वविद्यालयों, बोर्डों, महाविद्यालयों आदि के प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही शोधार्थियों, कथा-साहित्य के गंभीर अध्येताओं, समालोचकों, समीक्षकों के लिए भी उपादेय सिद्ध होगी।
प्राक्कथन
कहानी साहित्य पर अनुशीलन, साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा
कम ही
हुआ है। कहानी साहित्य जहाँ एक ओर भारत के सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ाया
जाता है वहीं दूसरी ओर कहानी का पाठक वर्ग बहुत विस्तीर्ण है, परन्तु इतने
विराट् और व्यापक साहित्य पर आलोचना, समालोचना तथा तात्त्विक विवेचनपरक
साहित्य बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है।
भारत के अनेक विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक वृंद एवं विद्यार्थी वर्ग को एक ऐसी पुस्तक की कमी महसूस हो रही थी जो संक्षेप में कथा साहित्य का परिचय दे सके। इस कमी को पटाने का मैंने यह विनम्र प्रयास किया है।
इस पुस्तक में हिन्दी की पहली कहानी (मैं ‘राजा भोज का सपना’ को पहली कहानी मानने का पक्षधर हूँ) से लेकर 2006 में प्रकाशित कहानी ‘रौबी’ तक को लिया गया है। कुल बीस कहानियों पर चर्चा की गई है। इन बीस कहानियों का चयन इनकी विशिष्टताओं के आधार पर किया गया है। किसी कहानीकार के बड़े होने या छोटे होने या लोकप्रिय होने या न होने अथवा वरिष्ठ या कनिष्ठ जैसा कोई मानदंड नहीं अपनाया गया है। पहला मानदंड रहा है—हिन्दी की पहली कहानी से लेकर नवीनतम (सन् 2006) तक के कालखंड में कहानी विधा में जो मोड़ और मरोड़ आए हैं उनका प्रतिनिधित्व करने वाली कम से कम एक कहानी अवश्य विवेचित हो तथा दूसरा मानदंड यह अपनाया गया है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों व बोर्डों ने किसी न किसी स्तर पर इन कहानियों को पाठ्यक्रम में शामिल किया हो।
इस पुस्तक में कथा तत्त्वों का विश्लेषण, शब्दार्थ एवं टिप्पणी खंड तथा व्याख्या खंड आदि का अनुशीलन उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम के बोर्डों, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर किया गया है।
संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि यह पुस्तक संपूर्ण भारत में विश्वविद्यालयों, बोर्डों, महाविद्यालयों आदि के प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही यह पुस्तक शोधार्थियों, कथा-साहित्य के गंभीर अध्येताओं, समालोचकों, समीक्षकों के लिए भी उपादेय सिद्ध होगी।
इस पुस्तक को इस प्रकार लिखा गया है कि यदि सामान्य पाठक भी इसे पढ़ना चाहे तो उसे हिन्दी कथा साहित्य की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो।
इस पुस्तक के लेखन में मैंने सिर्फ अपने परिवार का समय चुराया है। इसलिए आभार हेतु सर्वप्रथम मैं अपने माता-पिता की चरणवंदना करते हुए अपनी अर्द्धांगिनी डॉ. मनोरमा, अपनी तीनों पुत्रियों डॉ. अरुणा, निधि, अपर्णा तथा दामाद सुमन कुमार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।
मैं अपने अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक श्री बी. साम्बमूर्ति जी, कार्यपालक निदेशक श्री के. एल. गोपालकृष्ण जी, महाप्रबंधक श्री के. ए. कामत जी तथा समस्त कार्यपालकों व बैंक में कार्यरत मित्रों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ।
इस पुस्तक को प्रकाशित करवाकर इतने सुंदर रूप में आपके सम्मुख लाने के लिए श्री कमलेश पाण्डेय जी का हृदय से आभारी हूँ। पुस्तक को टंकित करने के लिए श्रीमती रेशमा और श्रीतेजपाल का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने अपने व्यस्त समय से कुछ समय निकालकर इसके टंकण में सहयोग दिया।
और अब अंत में उन सभी मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जो मुझे लेखन हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रोत्साहित करते रहते हैं।
भारत के अनेक विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक वृंद एवं विद्यार्थी वर्ग को एक ऐसी पुस्तक की कमी महसूस हो रही थी जो संक्षेप में कथा साहित्य का परिचय दे सके। इस कमी को पटाने का मैंने यह विनम्र प्रयास किया है।
इस पुस्तक में हिन्दी की पहली कहानी (मैं ‘राजा भोज का सपना’ को पहली कहानी मानने का पक्षधर हूँ) से लेकर 2006 में प्रकाशित कहानी ‘रौबी’ तक को लिया गया है। कुल बीस कहानियों पर चर्चा की गई है। इन बीस कहानियों का चयन इनकी विशिष्टताओं के आधार पर किया गया है। किसी कहानीकार के बड़े होने या छोटे होने या लोकप्रिय होने या न होने अथवा वरिष्ठ या कनिष्ठ जैसा कोई मानदंड नहीं अपनाया गया है। पहला मानदंड रहा है—हिन्दी की पहली कहानी से लेकर नवीनतम (सन् 2006) तक के कालखंड में कहानी विधा में जो मोड़ और मरोड़ आए हैं उनका प्रतिनिधित्व करने वाली कम से कम एक कहानी अवश्य विवेचित हो तथा दूसरा मानदंड यह अपनाया गया है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों व बोर्डों ने किसी न किसी स्तर पर इन कहानियों को पाठ्यक्रम में शामिल किया हो।
इस पुस्तक में कथा तत्त्वों का विश्लेषण, शब्दार्थ एवं टिप्पणी खंड तथा व्याख्या खंड आदि का अनुशीलन उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम के बोर्डों, विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर किया गया है।
संक्षेप में कहें तो कह सकते हैं कि यह पुस्तक संपूर्ण भारत में विश्वविद्यालयों, बोर्डों, महाविद्यालयों आदि के प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही यह पुस्तक शोधार्थियों, कथा-साहित्य के गंभीर अध्येताओं, समालोचकों, समीक्षकों के लिए भी उपादेय सिद्ध होगी।
इस पुस्तक को इस प्रकार लिखा गया है कि यदि सामान्य पाठक भी इसे पढ़ना चाहे तो उसे हिन्दी कथा साहित्य की पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो।
इस पुस्तक के लेखन में मैंने सिर्फ अपने परिवार का समय चुराया है। इसलिए आभार हेतु सर्वप्रथम मैं अपने माता-पिता की चरणवंदना करते हुए अपनी अर्द्धांगिनी डॉ. मनोरमा, अपनी तीनों पुत्रियों डॉ. अरुणा, निधि, अपर्णा तथा दामाद सुमन कुमार के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।
मैं अपने अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक श्री बी. साम्बमूर्ति जी, कार्यपालक निदेशक श्री के. एल. गोपालकृष्ण जी, महाप्रबंधक श्री के. ए. कामत जी तथा समस्त कार्यपालकों व बैंक में कार्यरत मित्रों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ।
इस पुस्तक को प्रकाशित करवाकर इतने सुंदर रूप में आपके सम्मुख लाने के लिए श्री कमलेश पाण्डेय जी का हृदय से आभारी हूँ। पुस्तक को टंकित करने के लिए श्रीमती रेशमा और श्रीतेजपाल का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने अपने व्यस्त समय से कुछ समय निकालकर इसके टंकण में सहयोग दिया।
और अब अंत में उन सभी मित्रों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जो मुझे लेखन हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रोत्साहित करते रहते हैं।
डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल
अध्याय 1
कहानी का उद्भव एवं विकास
प्रस्तावना
कहानी के उद्भव एवं विकास को यद्यपि कई साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से
प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, परन्तु सत्य तो यह कि साहित्य
की
प्राचीनतम और प्रमुख विधा कहानी है। भारत में माँ द्वारा बच्चों को कहानी
सुनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। मानव जीवन में मनुष्य का पहला
साक्षात्कार साहित्य के रूप में कहानी से ही होता है। बचपन में सुनी कहानी
ही मनुष्य के जीवन पर साहित्य की छाप छोड़ती है। लोरी यद्यपि बचपन की मधुर
साहित्यक विधा है परन्तु उनमें अर्थवत्ता या समझ का उतना संबंध नहीं होता
जितना की कहानी का होता है।
कहानी में औत्सुक्य और उपद्देश्य तथा रोचक तत्त्व होने के कारण यह बालमन पर प्रभाव डालती है। यूँ तो कहानियाँ किंवदन्तियों व लोककथाओं के रूप में निरंतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं। अतः कहानी का इतिहास, मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ है। अतः कहानी का उद्भव और विकास यदि सही अर्थों में तलाशना हो तो हमें मानव सभ्यता के इतिहास का अध्ययन करना होगा ताकि किस्सागोई की इस आदिम भावना को ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य में देखा जा सके।
कहानी में औत्सुक्य और उपद्देश्य तथा रोचक तत्त्व होने के कारण यह बालमन पर प्रभाव डालती है। यूँ तो कहानियाँ किंवदन्तियों व लोककथाओं के रूप में निरंतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं। अतः कहानी का इतिहास, मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ है। अतः कहानी का उद्भव और विकास यदि सही अर्थों में तलाशना हो तो हमें मानव सभ्यता के इतिहास का अध्ययन करना होगा ताकि किस्सागोई की इस आदिम भावना को ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य में देखा जा सके।
1.1. वैदिक एवं लौकिक संस्कृत साहित्य
हिंदी कहानी की परम्परा का आरंभ या कहानी साहित्य के ‘बीज की
यदि
बात करें तो हमें निर्विवाद रूप में स्वीकार लेना चाहिए कि हिन्दी के
कथा-साहित्य में वैदिक संस्कृतकालीन साहित्य (ऋग्वेद) व लौकिक संस्कृतिक
साहित्य का अत्यधिक योगदान है। रामायण, महाभारत, शतपथ, ब्राह्मणकथा,
उपनिषद में कहानी के अनेक बीज बिखरे पड़े हैं। केवल साहित्य की दृष्टि से
देखें तब भी अनेक प्रकार का कथा साहित्य उपलब्ध है जैसे-बृहत्कथा,
पंचतंत्र, हितोपदेश आदि। कहानी की यह परम्परा पालि एवं प्रकृत साहित्य से
होते हुए भी बौद्ध एवं जैन साहित्य में भी परिलक्षित होती है।
आरंभिक हिन्दी कहानियों में भी धार्मिक एवं नैतिक उपदेशों की छाप लिए हुए, कहानियाँ गढ़ी गईं। राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की कहानी ‘राजा भोज का सपना’ इसका प्रमाण है।
अतः हिंदी कथा साहित्य में वैदिक से लेकर लौकिक संस्कृति तथा इसके उपरांत पालि, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव रहा है।
आरंभिक हिन्दी कहानियों में भी धार्मिक एवं नैतिक उपदेशों की छाप लिए हुए, कहानियाँ गढ़ी गईं। राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की कहानी ‘राजा भोज का सपना’ इसका प्रमाण है।
अतः हिंदी कथा साहित्य में वैदिक से लेकर लौकिक संस्कृति तथा इसके उपरांत पालि, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव रहा है।
1.2 किंवदंती एवं लोककथाएँ
अनेक साहित्य समाक्षकों ने यह स्वीकार किया है कि कहानी का आरंभिक रूप
किंवदंती ही है। जो एक-दूसरे के मुँह से सुनते हैं उसे थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर
या उसी रूप में किसी और को बताते हैं। मौखिक रूप में कहानी का
‘आदि
स्वरूप’ यही है। इसे किंवदंती के नाम से जाना जाता है।
किंवदंतियों
में कहानी तत्त्वों का मिश्रण कर देने पर यह लोक कथा का रूप धारण कर लेती
है व एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में फैलती है। कुछ लोककथाएं अपनी
श्रेष्ठता के कारण एक स्थान से निकलकर कई क्षेत्रों तक फैल जाती हैं और
धीरे-धीरे साहित्य की धारा में मिल जाती हैं।
लोककथाओं व किंविदियों का मूल कहानीकार कौन था यह कहना दुष्कर ही नहीं असंभव भी हैं। क्योंकि सदियों सो चली आ रही किंवदंतियों व लोककथाओं में अनेक परिवर्द्धन, विलोपन होते रहते हैं। अतः ये मूल स्वरूप में भी उपलब्ध नहीं होती हैं। जब कोई विद्वान या अनुसंधानकर्ता इन किंवदंतियों व लोककथाओं को लिपिबद्ध करता है तो वे लोक साहित्य के अन्तर्गत वर्गीकृत हो जाती हैं। जहाँ तक हिंदी कहानी का प्रश्न है इसका कैनवस बहुत ही विविध एवं विराट है। यही कारण है कि अनेक शोध-कार्यों के बाद भी हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है इस तथ्य पर समीक्षकों में सर्वसम्पति नहीं बन पाई है।
लोककथाओं व किंविदियों का मूल कहानीकार कौन था यह कहना दुष्कर ही नहीं असंभव भी हैं। क्योंकि सदियों सो चली आ रही किंवदंतियों व लोककथाओं में अनेक परिवर्द्धन, विलोपन होते रहते हैं। अतः ये मूल स्वरूप में भी उपलब्ध नहीं होती हैं। जब कोई विद्वान या अनुसंधानकर्ता इन किंवदंतियों व लोककथाओं को लिपिबद्ध करता है तो वे लोक साहित्य के अन्तर्गत वर्गीकृत हो जाती हैं। जहाँ तक हिंदी कहानी का प्रश्न है इसका कैनवस बहुत ही विविध एवं विराट है। यही कारण है कि अनेक शोध-कार्यों के बाद भी हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है इस तथ्य पर समीक्षकों में सर्वसम्पति नहीं बन पाई है।
1.2. अरबी-फारसी की प्रभावजनित कहानियाँ
हिंदी साहित्य में अरबी और फारसी साहित्य का प्रभाव भी देखा जा सकता है।
अरबी-फारसी प्रभावयुक्त कहानियों में जादू (तिलिस्म), ऐयारी (अलौकिक
शक्तियों) तथा तोता मैना के किस्सेनुमा कहानियाँ (तर्कप्रधान), लैला-मजनू
(प्रेम कथा), हातिमताई (फैंटेसी व नैतिक शिक्षा का मिश्रण) आदि का प्रभाव
देखा जा सकता है।
हिंदी की पहली कहानी की दावेदारी में खड़ी पहली कहानी अर्थात इंशा अल्ला खाँ द्वारा लिखी ‘रानी केतकी की कहानी’ में यह अरबी-फारसी प्रभाव स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।
हिंदी की पहली कहानी की दावेदारी में खड़ी पहली कहानी अर्थात इंशा अल्ला खाँ द्वारा लिखी ‘रानी केतकी की कहानी’ में यह अरबी-फारसी प्रभाव स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है।
1.4. पाश्चात्य कथा साहित्य का प्रभाव
हिन्दी कथा साहित्य के विकास में अंग्रेजी कथा साहित्य की भी भूमिका रही
है। पाश्चात्य कथा साहित्य की तर्ज पर भारत में आरंभिक कहानियाँ लिखी
गयीं। कुछ कहानियाँ तो अंग्रेजी कहानियों का छायानुवाद जैसी प्रतीत होती
हैं। किशोलीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमती’ पर
शेक्सपियर के
नाटक ‘टैम्पेस्ट’ का प्रभाव है। हिंदी की पहली कहानी
होने की
दावेदारी में यह कहानी भी है। अतः इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि
अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव से भी हिंदी कथा साहित्य ने कुछ दायांश ग्रहण
किया है।
1.5. बंगला गल्प का प्रभाव
हिन्दी कथा साहित्य के प्रसिद्ध समालोचक डॉ. पुष्पपाल सिंह, डि. लिट्. ने
उपरिवर्णित चारों प्रभावों के अलावा एक और प्रभाव जोड़ा है- और इसे नाम
दिया-बंगला गल्प का प्रभाव। उन्होंने इस मत के समर्थन में जो तर्क दिया वह
अकाट्य है। उनका कथन है कि बंग महिला (श्रीमती राजेंद्रबाला घोष) की कहानी
‘दुलाईवाली’ इसका प्रमाण है। कुछ लोगों ने इसे हिंदी
की पहली
कहानी माना था। इसी प्रकार बंगला प्रभाव से लिखी कुछ छोटी कहानियों ने
हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध किया। उनकी यह विचारधारा सही है और मैं भी
इसका समर्थन करता हूँ।
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लोगों की राय
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